अंतररास्ट्रीय बालिका दिवस-बेटी कुदरत का है उपहार, इसको जीने का दो अधिकार। बेटी तो है जग की जननी, हमें रक्षा अब इसकी करनी- डॉ संजय गुप्ता
बेटी बचेगी श्रृष्टि रचेगी, बेटी है तो कल है- डॉ संजय गुप्ता
इंडस पब्लिक स्कूल दीपका के प्राचार्य डॉक्टर संजय गुप्ता ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर समाज को संबोधित करते हुए अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर अपने विचार रखें जारी प्रेस विज्ञप्ति में उन्होंने बालिकाओं के प्रति जागरूकता के उद्देश्य से कहा कि हमें बालक व बालिकाओं में भेद नहीं करना चाहिए। भारतीय संस्कृति व सभ्यता में कुमारी कन्याओं को पवित्रता के मिसाल के तौर पर वंदना की जाती रही है। कुमारी भोजन उसका ही एक उदाहरण है। वहीं भारत में स्त्रियों को देवी तथा शक्ति स्वरूपा के तौर पर पूजा जाता रहा है। अतः भारतीय होने के नाते हमें महिलाओं के साथ साथ बालिकाओं के प्रति भी सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। सकारात्मक दृष्टिकोण इस बात को लेकर की बालिकाएं भी कुदरत की रचना है। जो इस सृष्टि में संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण व समान भूमिका अदा करती है। पिछले कुछ दशकों में कई कुप्रथाओं की वजह से लोगों में बालिकाओं को लेकर दृष्टिकोण बदल सा गया था लोग अपने घर पर बालिकाएं नहीं चाहते थे जिसके पीछे समाज की कुप्रथा जैसे दहेज प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा इत्यादि विभिन्न तरह के कुप्रथाओं की वजह से बालिकाओं का घर पर होना मन को नहीं भाता था परंतु पिछले एक दो दशकों में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला जब लड़कों के साथ साथ लड़कियां भी स्कूलों में पढ़ने लगी शिक्षा ग्रहण कर अपने अधिकार समझने लगी वही पढ़ लिख कर विभिन्न तरह के कार्य जो अब तक केवल पुरुषों के लिए सीमित थे।
उनमें महिलाएं भी समान तौर पर सहभागिता निभाने लगी घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली वही बच्चियां आज पढ़लिखकर उनमें से कोई इंजीनियर बन कर गगनचुंबी इमारत खड़ी कर रही है। तो कोई साइंटिस्ट बन कर नए नए अविष्कार कर रही है। वही कोई स्पोर्ट्स के फील्ड में नित नए कीर्तिमान हासिल कर रही है। तो कोई नर्स या डॉक्टरी के फील्ड में अपना नाम रोशन कर रही है। तो देखा जाए तो प्रायः हर क्षेत्र में बालिकाओं ने अपना परचम लहराया है। व माता पिता जिले राज्य देश का नाम रौशन किया है।
जिन बच्चियों को अब तक घर की चारदीवारी के अंदर घर के कामकाज हेतु सीमित कर दिया गया था। जिससे उनकी क्षमताएं उनकी कौशलताएं बाहर प्रत्यक्ष नहीं हो पा रही थी। उनकी प्रतिभाएं दबी रह जा रही थी। पर जब से बच्चियां बाहर निकल कर पढ़नें लगी तब से बौद्धिक विकास होने से उनके आंतरिक गुण उनकी प्रतिभा बाहर समाज में प्रत्यक्ष होने लगी और अगर गौर फरमाएं तो आज प्रत्येक फील्ड में बालिकाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। अपना लोहा मनवाया है। हमें बालक व बालिकाओं में फर्क ना करते हुए बालिकाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए समाज में हर फील्ड हर क्षेत्र हर जगह उन्हें आगे आने हेतु स्थान प्रदान करना चाहिए। अवसर प्रदान करना चाहिए। हमें बालिकाओं व महिलाओं के प्रति अपने विचारों में परिवर्तन करने की जरूरत है। व अपने विचारों को वृहद करने की जरूरत है।
अपनी सोच को बढ़ा रखने की जरूरत है। समाज में स्त्री व पुरुष का संतुलन होना अत्यंत ही आवश्यक है। जिससे कि यह समाज आगे बढ़ता रहे कुछ दशकों पहले अवैध रूप से बालिकाओं को कोख में ही मार दिया जाता रहा था। ऐसी घटनाएं कितने ही राज्यों से आने लगी थी जोकि समाज में बालिकाओं के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करने लगी थी पर जब से भारत सरकार ने अवैध गर्भपात पर सख्ती बरती तथा दहेज प्रथा पर अंकुश लगाएं साथ ही सती प्रथा इस तरह इत्यादि विभिन्न को प्रथाओं पर अंकुश लगाने से कुछ हद तक बच्चियों की सुरक्षा हो सके वही पहले बाल विवाह की प्रथा हुआ करती थी जिसमें नाबालिक उम्र की बालिकाओं का विवाह कर उनके मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक उत्थान को रोक दिया जाता था।
उन्हें केवल एक वस्तु की तरह उपभोग के लिए समझा जाता था। इस तरह से उनके साथ अत्याचार किया जाता रहा पर इसमें भी परिवर्तन आज देखने को मिलता है। आज बच्चियों को लोग पढ़ाने पर अपना ध्यान फोकस कर रहे हैं। चाहे वह शहरी क्षेत्र हो या फिर ग्रामीण क्षेत्र हर जगह के परिजन आज जागरूक हुए हैं। और लड़कों के साथ साथ लड़कियों को भी पढ़ाई करवाए जाने में प्राथमिकता दे रहे हैं। जो कि एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है। फिर भी मजबूरी में कई ऐसे परिवार हैं। जो आज भी अपनी बच्चियों को पढ़ाई से वंचित रखने को मजबूर है। यह उनकी आर्थिक परिस्थिति की वजह से या फिर सामाजिक परिवेश की वजह से बंदी से नहीं तोड़ पा रहे हैं।
हम समाज को इस विषय पर तनिक और अपना ध्यान आकर्षित करने की जरूरत है। कि बालक व बालिकाओं दोनों को समान दृष्टि से देखें न केवल बाहर बल्कि घर पर भी हर छोटी से छोटी चीजों में भी हम बालक बालिकाओं में भेद न करें प्रायः देखा जाता है। कि घर पर बच्चियों को कई छोटे-छोटे कार्यों को करने से महज इसलिए मना कर दिया जाता है। कि वह एक बालिका है। यह एक संकीर्ण सोच है। हमें अपनी सोच को विस्तार देने की जरूरत है। अपनी सोच को बढ़ा रखने की जरूरत है। की जो कार्य एक लड़का कर सकता है। वह हर कार्य एक लड़की भी कर सकती है। आज टीचिंग के क्षेत्र में, पत्रकारिता के क्षेत्र में, राजनीति के क्षेत्र में, डॉक्टरी हो या इंजीनियरिंग साइंटिस्ट हो या वकालत हर क्षेत्र में बालिकाओं ने अपना परचम लहराया है।
व यह साबित कर दिया है, कि वह भी लड़कों से या पुरुषों से कम नहीं यह समाज की ही नेगेटिव सोच थी जो आजतक उन्हें चार दिवारी में कैद कर रखा गया। उन्हें अवसर ही नहीं दिए गए आगे बढ़ने के लिये। बिना अवसर दिए ही उन्हें कमजोर शक्तिहीन साबित कर दिया गया था। पर अपने दृण संकल्पों के मद्देनजर आज बालिकाओं ने उच्च विचारधारा का खंडन करते हुवे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर यह साबित कर दिया कि उनकी भी अहमियत उतनी ही जरूरी है समाज मे जितनी पुरुषों की समाज की वह पुरानी सोच जिसने बालिकाओं के प्रतिभाओं पर अंकुश लगा रखा था आज उसका खंडन हो चुका, उस विचारधारा को पूर्णतया समाप्त करने में प्रत्येक भारतीय को अपने विचारों में परिवर्तन कर बालिकाओं को व स्त्रियों को समाज मे पुनः वही स्थान देने की जरूरत है।
जो हमारे भारतीय संस्कृति में रही है। शक्ति व देवी स्वरूप में। एक बच्ची किसी माता पिता के लिये बेटी होती है। तो वही किसी भाई के लिए बहन का रोल प्ले कर रही होती है। वहीं एक पति के लिए पत्नी के रूप में अर्धांगनी बनकर उसके हर कार्यों में सहयोगी जीवन व्यतीत करती है। तो वहीं वह स्त्री एक माता के रूप में ममता भरी पालना से एक बच्चे को नया जीवन प्रदान कर रही होती है। वहीं आज घर के काम को करते हुवे महिलाएं हर वह काम जो पुरुषों हेतु रिज़र्व थी उन पर परचम लहराते हुवे बाहर के काम मे भी भागदारी निभा रही है। तो एक ही दिन में एक बालिका की स्त्री की कितने ही रुप हम देखते हैं।
अगर एक बार विचार करें कि इस समाज मे लड़कियां नहीं होंगी तो क्या यह सृष्टि एक सेकंड भी आगे बढ़ सकेगी, बिल्कुल नहीं बालिकाओं के बिना, स्त्रियों के बिना इस सृष्टि की परिकल्पना ही नहीं कि जा सकती, क्योकि जितने लड़के या पुरुष इस समाज के अस्तित्व के लिये इम्पोर्टेन्ट हैं। उतने ही बालिकाएं या स्त्री भी उतने ही इम्पोर्टेन्ट हैं। जितने की पुरूष या बालक क्योकि दोनों के संतुलन से ही यह समाज आगे बढ़ता है। नई पीढ़ी की स्थापना, के लिए पालना के लिये दोनों ही इम्पोर्टेन्ट हैं। कुदरत की कोई चीज ऐसे ही नहीं बनी उसके पीछे सृष्टि चक्र के आगे बढ़ने का कनेक्शन जुड़ा हुआ है। हम समाज को तनिक जागरूकता इस विषय पर और चाहिए व अपनी सोच व दृश्टिकोण को बदलने की जरूरत है। बालिकाओं को घर के कार्य तक सीमित ना रखते हुवे उन्हें पढ़ाएं लिखाएं हर वह सुविधा मुहैया करवाएं जो एक लड़के के लिये करते हैं। लड़के लड़की में भेद ना करें दोनों के प्रति समान भाव रखें यह सम्पूर्ण सृष्टि समानता के भाव से ही चलती है। जरा सी ऊंच नीच हुई कि असमानता आने से असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। जिससे समाज मे अस्थिरता आ जाती है। अगर उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो हरियाणा जैसे राज्य में लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या बिल्कुल कम है चूंकि एक दशक में लड़कियों के जन्म को रोककर लड़को को बढ़ावा दिया गया था जिससे समाज मे असंतुलन की स्थिति निर्मित हुई, जिसके लिये सरकार ने कई कड़े नियम बनाये जिससे बहोत हद तक राहत मिली, तो हमें ऐसा पुनः समाज मे नहीं होने देना है। जहां कहीं भी दिखे की बालिकाओं के साथ पक्षपात हो रहा है। वहां आवाज भी उठानी चाहिए लोगों को सही गलत की पहचान करवानी चाहिए। साथ ही समय समय पर इस तरह के सामाजिक जागरूकता के प्रोग्राम के माध्यम से समाज को जागरूक भी करते रहना चाहिए
आगे इंडस पब्लिक स्कूल के प्राचार्य डॉक्टर संजय गुप्ता ने कहा कि निश्चित ही पिछले दो दशकों में अभूतपूर्व बदलाओ इस समाज मे लड़कियों के प्रति दृश्टिकोण को लेकर बदलाओ होते नजर आ रहे हैं। पर अभी भी बदलाओ होने बांकी है। समय समय पर जिस तरह की घटनाएं समाज मे नजर आती रहती हैं। वह समाज को झंझोर कर रख देती हैं। व सोचने पर मजबूर कर देती हैं। कि कमी कहां रह जा रही है। तो किसी भी परिवर्तन की शुरुवात स्वयं से होती है। जब हम प्रत्येक अपने स्वयं के दृश्टिकोण में परिवर्तन करते हुवे बालिकाओं के प्रति एक सकारात्मक दृश्टिकोण अपनाएंगे तो हमे देख अन्य बदलेंगे व इस कड़ी से ही बदलाओ निश्चित तौर पर देखने को मिलेगा। आगे हमे बालिकाओं को अवसर प्रदान करने की जरूरत हैं जिससे कि वह अपने प्रतिभाओं को प्रत्यक्ष कर सामाजिक योगदान सामाजिक सहभागिता निभा सकें हमे यह बात गांठ बांधनी है। कि उनके टैलेंट को रोककर इस समाज को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता बल्कि उन्हें अवसर प्रदान कर उनके टैलेंट का इस्तेमाल समाज के उत्थान में लगवाकर समाज को और भी श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। बल्कि बालक व पुरुषों को भी बालिकाओं व महिलाओं से उनके हुनर सीखने की जरूरत है। कि भोजन कैसे पकाते हैं। सफाई कैसे करते हैं। कपड़े कैसे धोते हैं। क्योकि कई मर्तबा जीवन मे ऐसे समय भी आ जाते हैं जब आपको अकेला जीवन व्यतीत करना पड़ता है ऐसे कंडीशन जब आप खुद अपने ही कार्यों को करने के लिये किसी अन्य पर डिपेंडेंट होंगे अर्थात इंडीपेंडेंट नहीं हुवे होंगे तो लेने के देने पड़ जाते हैं उदाहरण के तौर ओर स्कूल के बाद कई बच्चे बाहर अन्य राज्यों या विदेशों में पढ़ने जाते हैं जहां उन्हें होस्टल में रहकर पढ़ाई करनी होती है। ऐसी स्थिति में अपने काम स्वयं करने होते हैं। तब काम ना आने की वजह से लेने के देने पड़ जाते हैं। तो बालक व पुरुषों को चाहिए कि वह सचमुच में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं तो आत्मनिर्भरता की शुरुवात ही स्वयं के कार्यों को अंजाम देने के लिये किसी अन्य पर निर्भर ना होना से होती है। जो परिवर्तन आप बाहर देखना चाहते हैं। उसे सबसे पहले अपने आप से शुरू करें